गंगा नदी नहीं , माता है ...


अगणित जनों की श्रद्धा का केंद्र होने के साथ देश को समृद्धि एवं वैभव प्रदान करने वाली गंगामाता अपनी संतानों का पाप धोते-धोते विषैली होती जा रही है। जिसका जल कभी उद्गम स्थल से सागर पर्यंत शुद्ध एवं निर्मल रहता था, वह आज मार्ग के प्राथमिक पड़ावों में ही प्रदूषित हो रहा है। जिसके औषधीय गुण एवं शोधक-क्षमता को देखकर वैज्ञानिकों से लेकर विदेशी तक आश्चर्य करते थे, उसी का जल आज पीने लायक़ भी नहीं रह गया है।  राष्ट्र के लिए यह दुर्भाग्यपूर्ण बात है कि जिस गंगाजल को अब पीने योग्य भी नहीं माना जाता, पच्चीस वर्ष पूर्व तक विश्वभर के वैज्ञानिक यह देखकर हैरान थे कि गंगाजल, जल नहीं अमृत है। विश्व में इतना पवित्रा जल केवल उत्तरी एवं दक्षिणी ध्रुव में खोजा गया। हालाँकि वैज्ञानिक यह देखकर आश्चर्यचकित हुए कि ध्रुवों के अछूते जल में भी एक वर्ष बाद कृमि दिखाई देने लगे, जबकि सौ साल बाद गंगाजल उन्हें उसी तरह शुद्ध नजर आया। लेकिन इसे नियति की विडंबना के सिवा और क्या कहें कि गंगाजल की स्वयं शुद्ध होते रहने की अद्भुत क्षमता के बावजूद आज गंगा भारत की सबसे प्रदूषित नदियों में से एक है।विकास की अंधी दौड़ में मनुष्य ने पारिस्थितिकी तंत्र से जो खिलवाड़ किया है, उसमें गंगा नदी का उद्गम स्थल भी अछूता नहीं रह गया है। गंगा का उद्गम स्थल आज से कई सौ साल पहले वर्तमान गंगोत्री मंदिर तक फैला था। जो आज 17 किमी. खिसक चुका है। जियोलॉजिक सर्वे ऑफ इंडिया के सर्वेक्षण के अनुसार, गत पचास वर्षों में गंगा का गोमुख ग्लैशियर प्रतिवर्ष 10 से 30 मीटर की गति से सिकुड़ता है। स्थिति यही रही तो  सालों बाद गंगा का अस्तित्व खतरे में पड़ सकता है। भूगर्भशास्त्रियों के अनुसार गंगा के उद्गम पर प्रवाह जिस गति से घट रहा है, उसे देखते हुए अगले कुछ हज़ार वर्षों में इसके रूकने की संभावना है।
ऐसा न हो, इसके लिए जरूरी है कि देशवासी गंगा को माता का सम्मान दें, उसे प्रदूषित होने से बचाएँ। उसे अपनी प्राकृतिक अविरलता के साथ बहने दे ! गंगाजल का अन्धाधुन्ध दोहन बंद हो ! उसके व्यापारीकरण की कुत्सित योजनाओ का विरोध हो !  सच यही है कि विकास की अंधी दौड़ में भटकी गंगामाता की संतानों को विषात्ताफता से तड़पती-कलपती गंगा मैया की पीड़ा को समझना होगा। हममें से हर एक को व्रत लेना होगा कि वह अपने चिंतन व कर्म से गंगा माँ को प्रदूषित नहीं करेगा। तभी पतितपावनी गंगा मैया, इससे जुड़ी संस्कृति जीवित रह पाएगी। प्रदूषण के इस वर्तमान संकट के प्रति समय रहते हुए न चेते तो कहीं ऐसा न हो कि गंगा नदी भी एक दिन पावन सरस्वती नदी की तरह विलुप्त हो जाएं। 

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