तो जल विद्युत परियोजनाएं चलवाने के लिए ताजपोशी हुई है बहुगुणा की !


ऐसा लग रहा है कि तमाम रोने-धोने, नाराजी और मान मनौवल के बाद अन्ततः विजय बहुगुणा के नेतृत्व में बनी कांग्रेस की नई सरकार ने काम करना शुरू कर दिया है। लेकिन चीजें एकदम जिस तरह शुरू हुई हैं, उससे आगे के लिये उम्मीद जगने के बदले एक भय लगने लगा है। सबसे पहले एक ऐसे व्यक्ति की एडवोकेट जनरल के पद पर नियुक्ति, जिसकी मुजफ्फरनगर कांडके आरोपी अनन्त कुमार सिंह के दोषमुक्त होने में संदिग्ध भूमिका थी। फिर स्थायी राजधानी के लिये देहरादून के नाम का उछलना और फिर सड़ा-गला, एक जैसा भी भू कानून था, उसे भू माफिया के पक्ष में संशोधित करने की पहल होना। ये सारी बातें अच्छे भविष्य की ओर संकेत नहीं करतीं।
पदभार ग्रहण करते ही जिस तरह मुख्यमंत्री बाँध निर्माता कम्पनियों के पक्ष में खड़े हुए हैं, उससे तो लगता है कि उनकी ताजपोशी इसीलिये हुई है कि जल विद्युत परियोजनायें फटाफट बनें। हिमालय में अविरल बहते पानी से बिजली बनाने का विरोध कोई भी समझदार व्यक्ति नहीं करेगा। लेकिन यह बात तो समझी ही जानी चाहिये कि ये परियोजनायें पर्यावरण को कितना नुकसान कर रही हैं, अपने अस्तित्व को बचाने के लिये बेचैन क्षेत्रीय जनता का कितने राक्षसी ढंग से दमन कर रही हैं और प्रदेश में एक जबर्दस्त ठेकेदार लॉबी का सृजन कर जनता के बीच में परस्पर वैमनस्य उत्पन्न कर रही हैं। जल विद्युत परियोजनायें पर्यावरण सम्मत हों और उनका स्वामित्व स्थानीय समुदायों- पंचायतों, प्रोड्यूसर्स कम्पनियों या सहकारी समितियों के हाथ में होना चाहिये, यह आवाज हर उत्तराखंडी की जुबान से निकलनी चाहिये। हमें कम्पनियों की गुलामी नहीं चाहिये और हम उत्तराखंड के बाहर के लोगों को इन परियोजनाओं में अगर लायेंगे तो वेतनभोगी इंजीनियरों और विशेषज्ञों के रूप में, मालिकों के रूप में नहीं। कच्छा-बंडी बनाने वाले भी जेब में रुपयों की थैली लेकर आयें, एक रुपये के सौ बनायें और हमें कंगाल बना कर चलते बनें, इसे उत्तराखंड का स्वाभिमान क्यों बर्दाश्त करे ?

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